Saturday, May 16, 2020

आभा खरे


कूकी कोयल
मुँह ढाँप के सोये
गाड़ी के हॉर्न 

-आभा खरे




विभिन्न टिप्पणियाँ
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आभा खरे जी का हाइकु कोरोना काल का सचित्र वर्णन करता हुआ उम्दा हाइकु ... बिना कोरोना का जिक्र किये.....
-विभारानी श्रीवास्तव
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आभा खरे जी का यह हाइकु बड़ा ही सशक्त हाइकु है। कितने सशक्त बिंब हैं कि अचरज होता है। ऐसे वातावरण में कोयल की कूक गूंज रही है जब सब कुछ बंद है। प्रकृति पर कोई पाबंदी नहीं। एक विस्तार लिए कथन अल्प शब्दों में। बहुत सुंदर
-बुशरा तबस्सुम
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कूकी कोयल
मुँह ढांप के सोये
गाड़ी के हॉर्न
-आभा खरे
वाह बेहद सुंदर हाइकु। भागती दौड़ती जिंदगी जब अचानक से थम गई है प्रकृति का रंग खुल कर सामने आ रहा है। इसी प्रकृति के एक क्षण का इस समय में लेखिका को साक्षात्कार हुआ है। लॉकडाउन के समय दैनिक जीवनचर्या में शामिल सारे शोरगुल थम गये हैं जिनके हम आदी हो चुके थे जो हमारे जीवन का एक हिस्सा बन चुके थे हम इतने अभ्यस्त हो चुके कि गाड़ी, कारखाने किसी भी चीज़ का शोर हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका हमे वो शोर ही नहीं लगता। इन सबके बीच प्रकृति ध्वनियों को पशु पक्षियों की मधुर चहचहाहट को हम भूल गए क्योंकि इन शोरों के बीच वो हम तक पहुँच ही नहीं पाते या भागमभाग वाली जीवन शैली में हमारा ध्यान नहीं जाता उन पर।ऐसे में लॉक डाउन की शांति के बीच या किसी अगले सुबह जब शहर में वाहनों के हार्न का शोर नहीं है तो अचानक कहीं ........
यह कठिन समय सिक्के का एक पहलू और हाइकु दर्शा रहा है सिक्के का दूसरा पहलू, सामयिक हाइकु

-राजीव गोयल
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भोर के सन्नाटे में कोयल कूक ही मधु आभास देती है। प्रत्येक शब्द  की विशेष पहचान है। सशक्त बिम्ब का हाइकु
सुन्दर अभिव्यक्ति।

-पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'
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आभा खरे जी का उम्दा, सशक्त हाइकु, जहाँ चारो ओर कोरोना महामारी के कारण सामाजिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा हुआ है, ऐसे  माहौल में कोयल की कूक दर्शा रही है प्रकृति की स्वतंत्रता।

-नीलम अजित शुक्ला
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प्रणाम विभा दी
इस हाइकु को पोस्ट करते हुए ..मैं डर रही थी कि अगर इसके बिम्ब खुलकर कोरोना समय या लॉक डाउन से न जुड़ पाये तो ये इस हाइकु का कोई औचित्य नहीं रह जायेगा। लेकिन दी आपकी टिप्पणी ने मुझे बहुत हौसला दिया और इस हाइकु को पूर्ण किया।  आभार विभा दी।

आभा खरे
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कूकी कोयल
मुँह ढाँप के सोए
गाड़ी के हॉर्न ....।
    -आभा खरे
यह हाइकु  कोयल के कूकने के दर्द को कोरोना की मृत्यु से उपजे दर्द के साथ  तुलनात्मक वर्णन है , इसमें एम्बुलेंस छिपा हुआ है लेकिन उसका हॉर्न यहाँ  प्रकट हुआ है ।
यदि इसके दर्द को और बढ़ाना हो तो अंतिम पंक्ति में ऐसा कर सकते हैं- दर्दीला हॉर्न ....।

-रमेश कुमार सोनी
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कूकी कोयल
मुँह ढांप के सोये
गाड़ी के हार्न
-आभा खरे

देशहित के लिए व स्वंय की सुरक्षा के लिए सभी देशवासी अपने-अपने घरों में थे। ऐसे में आवागमन के साधन भी पूर्ण रूप से बंद हो गये थे ।जिससे प्रकृति प्रदूषण भी कम हुआ है। चारों ओर सन्नाटा है लेकिन कोयल की कूक सुनाई पड़ रही है। आभा जी का हाइकु अद्वितीय है व सटीक बिंब प्रस्तुत कर रहा है। आभा जी आपको बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएं

-सविता बरई 'वीणा'
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कोयल की कूक बेबस  गरीब मजदूरों की पीड़ा,मुँह ढाप के सोये सरकार की निश्चंता,अकर्मण्यता,गाड़ी के हाॅन मृत्यु की बढ़ती भयावहता ,आज की सम्पूर्ण परिस्थतियों को समेटे हुए। समीक्षक तो नही हूँ। भावनाओं को पढ़ने की कोशिश एक पाठक की दृष्टि से।

-डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर
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आभा खरे जी का हाइकु बहुत गहरे अर्थ और बिम्बों को समेटे हुए विस्तृत कैनवास  का हाइकु है।इन दिनों जब चहुओर कोरोना का कहर ढा रहा है इंसान इंसानों से दूरी बनाकर भयभीत हो घर में दुबका है ऐसे में प्रकृति फल फूल रही है।कोयल घूम घूम कर गा रही है(रहा है भी पढ़ सकते हैं) अर्थात प्रकृति स्वतंत्र है। हार्न के चुप हो जाने से शोर का प्रदूषण भी गायब है। बहुत अच्छा हाइकु।आभा जी को बधाई।

-आशा पांडेय
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बहुत सुन्दर,सटीक,सार्थक,सामयिकव लघु कलेवर मेँ विस्तृत अर्थ समेटे परिवेश को परिभाषित करता हाइकु!साधुवाद!!
     
-डॉ. मधु चतुर्वेदी
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प्रकृति के गीत को सुनना है तो हमें उसके साथ जुड़ना होगा।ऐसा ही संदेश देता यह हाइकू।जब हम भौतिकतावाद को त्याग कर अपने आप से जुड़ेंगे तभी हमें कोयल की कूक सुन पायेंगे।आज यह समय सार्थक है।बहुत उत्तम हाइकु।

-कमलेश चौरसिया
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कूकी कोयल
मुँह ढांप के सोये
गाड़ी के हॉर्न
-आभा खरे
बहुत अर्थपूर्ण हाइकु। लॉक डाउन के कारण सभी मनुष्य घरों में चुपचाप कैद हो गए हैं । वाहन नहीं चल रहे इसलिए हार्न का शोर भी समाप्त हो गया। वातावरण प्रदूषण मुक्त हो गया है। वाहनों के शोर एवं भागम भाग की ज़िन्दगी कोयल की या अन्य पक्षियों की आवाज भी सुनना हम भूल गए थे लेकिन अब जब मनुष्य एवं वाहनों का शोर थम कर वातावरण शांत हो गया है तब  कोयल की कूक अत्यंत मुखर होकर सुनाई दे रही है। सार्थक हाइकु के लिए आभा जी को बधाई।

-डॉ रमा द्विवेदी, हैदराबाद
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समयानुसार बदलती परिस्थितियां और बदलती परिस्थितियों में बदलते महत्व..... दानवीर प्रवृत्ति के कमजोर पड़ते ही माननीय स्वरों का उत्थान...... विपरीत परिस्थिति में भी जो प्राप्त हुआ उसकी अनुभूति..... जो चारों तरफ नक्कार खाना बन गया था, उसमें भी कोयल कूकी..... बिना किसी आपदा का नाम दिए या घटना का नाम दिए उसका वर्णन करना एक बहुत ही उत्तम अनुभूति, अभिव्यक्ति और उपलब्धि.

-विवेक कवीश्वर
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आभा खरे जी के हाइकु पर प्रतिक्रिया- ---मानव जितना भी भौतिक विकास कर ले परंतु एक मात्र प्रकृति ही शाश्वत सत्य हैं। बहुत सुंदर गहरे अर्थ को परिभाषित करता हाइकु।             

-त्रिलोचना कौर
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इतना कह सकता हू कि हाइकु के नियमानुसार कोयल के कूकने से ग्रीष्मकाल का एहसास होता है.. प्रकृति का समावेश..
साथ ही सम सामयिक गतिविधि में हॉर्न के बंद होने की स्थिति एवं कोयल की कूक का मधुर एहसास अनुभूति को समाहित कर रहा है.. वर्ण विन्यास 5,7,5 का निर्वाह स्पष्ट है..कविता कहने की हाइकु की शैली प्रभावी  है..

-मनीष मिश्रा मणि
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कोयल की कूक समस्त वसंत के वैभव को प्रकट करती है। प्रकृति की सुंदरता को देख आम की मँजरियों/ शाख पर बैठी कोयल की कूक वातावरण में मिठास घोलती है। आज वाहनों के हार्न या शोर आदि नहीं है शायद इसलिए  यह कूक हमें ज्यादा अच्छे से सुनाई दे रही है। लॉक डाउन के कारण वाहन गैरेज में बंद है और ढँके खड़े हैं। जब वाहन चल ही नहीं रहे तो उनके हार्न के बजने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए  कोयल की इस कूक से हार्न को कोई फर्क नहीं पड़ रहा । बंद, सुस्त-सोये वाहनों के हॉर्न भी मुँह ढँककर सोए पड़े हैं। कोरोनाग्रस्त जीवन में मानव की ज़िंदगी थम गई है। आज अधिकांश चीज़े बंद है लेकिन कोयल की कूक इस बात का प्रतीक है कि प्रकृति रुकी नहीं है वह अनवरत अपने सृजन में मग्न है।

-डॉ. पूर्वा शर्मा
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आदरणीया आपने अपने हायकु से सही सटीक अभिव्यक्ति की हैं करोना काल में हमें प्रकृति के निकट आने का अवसर मिला है। ध्वनि प्रदूषण से मुक्त होकर  पंछी भी सांस ले पा रहे हैं और हम उनके मधुर स्वर का आनंद अनुभव कर सक रहे हैं। सच में हायकु विद्या में कम शब्दों में गहरा अर्थ व्यक्त हो जाता हैं आपने सार्थक कर दिया । बहुत बहुत बधाई

-प्रेरणा माथुर
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 महामारी के इस संकट काल में चारों तरफ विनाश ही विनाश नज़र आ रहा है .दौड़ने-भागने वाली दुनिया थम गई है . कहीं कुछ अच्छा नज़र नहीं आ रहा है तब इतने बुरे दौर में कोयल की कूक कानों में मिठास घोल रही है.प्रकृति का सुरीला गायन तमाम परेशानियों, मुसीबतों के बावजूद सुखकर है .हार्न का मुंह ढांप कर सोना यह बताता है  कि कहीं न कहीं तेज़ रफ़्तार पर रोक लगी है और जहाँ हम रुके हैं ,थमे हैं प्रकृति को महसूस कर सके हैं . जीवन का शाश्वत सौंदर्य केवल प्रकृति के पास है यह सत्य केवल 17 अक्षरों में  उद्घाटित हुआ है .नि:संदेह एक शानदार हाइकु लिखा है आभा जी ने.
                 
-रीमा दीवान चड्ढा
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 वायरस से छिड़ी हुई जंग के वर्तमान माहौल में सब घरों में कैद हैं, डर फैला हुआ है, सब परेशान हैं दुःखी हैं। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है वह है सकारात्मक सोच का जिसमें  हम प्रकृति के निर्भर रूप को देख सकते हैं। इतना स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त वातावरण की किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आभा खरे ने वर्तमान त्रासद काल में प्रकृति के इस रूप को देखने का प्रयास किया है। कोयल खुश होकर कूक रही है, सड़कों पर वाहनों के न चलने से परिवेश शुद्धता के चरम पर पहुंच गया है। क्योंकि गाड़ियां खड़ी हैं कवर ओढ़े जहां की तहां, कहीं उनके हार्न नहीं, कहीं शोर नहीं। सकारात्मक सोच के इस बेहतरीन हाइकु के लिए आभा खरे को हार्दिक बधाई।

-डा जगदीश व्योम
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वाहः कुछ ना कह कर बहुत कुछ कह गया ये हाइकु।आभा दी को इस बेहतरीन हाइकु के लिए बहुत बहुत बधाई सच कहूं तो मैं इस हाइकु को दूसरी दिशा दे रहा था लेकिन सफल नही हो पा रहा था जब विभा दी ने पहली प्रतिक्रिया दी तो सबकुछ साफ हो गया।
वाकई में कोरोना काल के असर को बेहद खुबसूरती से बयां करता सशक्त हाइकु

-अभिषेक जैन
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आदरणीया आभा खरे जी का हाइकु अर्थवान है, बिम्बों के माध्यम से सार्थक प्रस्तुति। जिसमें कोयल की कूक के मधुरता के मध्य आज मानवीय व्यथा को दर्शाया है। एक अच्छे हाइकु के लिए बहुत बहुत बधाई ।
                         
-शिव डोयले
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रोज की आपाधापी व कारो की चहलपहल व हॉर्न के प्रदूषण में हम प्रकृति का सौदर्य व कोयलों की कू कू सुन ही न पा रहे थे ।लॉकडाउन में जब ध्वनि प्रदूषण बंद हुआ तो आज हमें कोयल की कू कू भी अपनी और आकर्षित करती है व अलग आनंद देता है प्रकृति के करीब लेजाने वाला स्पष्ट बिम्बो वाला अति सुंदर हाइकु, बहुत बहुत बधाई

-कैलाश कल्ला
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यह धरा, गगन, जल, पवन यानी पूरा ईकोसिस्टम प्राणि जगत के सभी सदस्यों के निमित्त रचा गया है पर मानव की भैतिकतावादी प्रवृत्ति के चलते,अकेले ही सब कुछ हड़प लेने की होड़ के कारण, प्रकृति भयंकर असंतुलन का शिकार है।कई प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं शेष दयनीय अवस्था में हैं।लॉकडाउन ने मानव की अनियंत्रित चाल पर लगाम लगाई है और पर्यावरण प्राकृतिक साम्य की ओर बढ़ता दिख रहा है। आभा खरे द्वारा प्रस्तुत हाइकु इसी नव-साम्य की सत्रह अक्षरों की कहानी है।कान के पर्दे फाड़ने की हद तक पहुँचे ध्वनि प्रदूषण में या तो कोयल गाना ही  भूल गई या उसकी मधुर कूक नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ जैसी दब गई।गाड़ियों के पहिए रूके तो शोर थमा  और कोयल की स्वरलहरियाँ फ़िज़ाओं में बिखर गईं!
”हॉर्न का मुँह ढाँप के सोना” नई कल्पना और बिम्ब प्रस्तुत करता है। हाइकु का शिल्प भी श्रेष्ठ है।व्यापक अर्थों में इस हाइकु को जीवन में भटकाव छोड़ सत्य की ओर चलने के आह्वान के रूप में भी देखा जा सकता है।
आभा जी को बधाई!

-मीनू खरे
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5 comments:

Anonymous said...


जय मां हाटेशवरी.......

आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
17/05/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......

अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आपके श्रम की क्षमता को सलाम/नमन

How do we know said...

kya baat hai! ekdum sach, Vibhaji!

अलंकार आच्छा said...

हॉर्न के कानफाड़ू शोर शराबे पर भारी पड़ती कोयल की मीठी कूक। मानव की विनाश लीला पर तमाचा जड़ती प्रकृति की आईना दिखाती प्रतिक्रिया ....

एक समसामयिक, सशक्त और पूरी बात कहता हाइकु....

जितना संवेदनशील और सामयिक हाइकु है, उतनी ही गहराई लिए बेहतरीन टिप्पणियाँ ....

#अलंकार_आच्छा

राय कूकणा said...

बधाई आभा जी! आपके हाइकु व इस पर विभिन्न टिप्पणियों के माध्यम से हाइकु में प्रतीकों व बिंम्बों की महता को समझने में सहायता मिलती है। ये तथा डॉ जगदीश व्योम जी का “ओस की बूँद” हाइकु ये स्पष्ट करते हैं की एक अच्छा हाइकु तभी बनता है जब उस से जुड़ी अनुभूति पराकाष्ठा पर पहुँचे।
- राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया